Friday, December 26

तीन दिन


दो थपके हों या चार सही,
मिट्टी से निकले आग कहीं?
ठोका, थपका पानी से सींचा,
दो चार ने खड़े हो प्यार से पुछा

सूखी मिट्टी थी मुरझाई सी,
पानी के करुणा से सकुचाई सी;
कंकड़ पत्थर की वर्षा होती,
सुबह की ओस से वंचित थी

नए सृजन की आवाज़ उठी थी,
बाहों में भरकर धुप खिली थी;
आटे से उठकर चोकर में मिली थी,
चाकों की बाटों से पिसकर बनी थी

हल्की बारिश की बूंदों ने जिव्हा पर,
लालच की मिसरी धरी थी;
हाथों में भरकर सुविनय का प्याला,
मिट्टी के होंठों पर रख सी दी थी

मैं!!


प्रकृति के नियमों को चीरती,
भेदती, एक असामान्य,
असाधारण उलझन काटने,
कचोटने, नोंच खाने आती है

क्या असामान्य हीं होना
मेरी परिभाषाओं को सार्थक
और परिपक्व बनाती है?
या मुझे असमय सागर में डुबोने का प्रयास?

क्रियाओं में संलग्न जीव,
हर जीव, अपनी परिभाषाओं हीं को तो
सार्थक और शब्दित करने में लगा है
फिर मैं हीं असामान्य क्यों?

तर्क से इसे खंडित करने पर,
हर जीव असामान्य और
असाधारण सी हीं तो यात्रा करता
कुपित कुंठित फिर यहीं यह अग्नि क्यों?

इसकी ज्वालाएं शरीर के हर अंग को,
झुलसा, तपा देती हैं
शायद, सुना है सोना भी कुछ
इसी प्रकार तैयार होता है

क्या वो आई थी?


किसको लगता है यहाँ वो आई थी,
झाँका था, पलकें झपकाईं थी;
साँसों से सदियाँ महकाई थी,
किसने कहा वो आई थी

कभी कंगन की आवाजें हैं,
पायल भी झनकाती है;
पर किसके कहने पर आई थी,
और किसको लगता है वो आई थी

जब घूमा करते थे अंधियारों में,
कानों के झुमके सुन सुन कर;
जब लगता था वो आई है,
कब लगता था वो आई है

हाथों की खुशबू बहकाती थी,
चेहरे पर हँसी खिल जाती थी;
पर कबसे पूछता घूम रहा,
क्या किसी ने उसे देखा जब वो आई थी?