तीन दिन
दो थपके हों या चार सही,
मिट्टी से निकले आग कहीं?
ठोका, थपका पानी से सींचा,
दो चार ने खड़े हो प्यार से पुछा।
सूखी मिट्टी थी मुरझाई सी,
पानी के करुणा से सकुचाई सी;
कंकड़ पत्थर की वर्षा होती,
सुबह की ओस से वंचित थी।
नए सृजन की आवाज़ उठी थी,
बाहों में भरकर धुप खिली थी;
आटे से उठकर चोकर में मिली थी,
चाकों की बाटों से पिसकर बनी थी।
हल्की बारिश की बूंदों ने जिव्हा पर,
लालच की मिसरी धरी थी;
हाथों में भरकर सुविनय का प्याला,
मिट्टी के होंठों पर रख सी दी थी।
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