मैं!!
प्रकृति के नियमों को चीरती,
भेदती, एक असामान्य,
असाधारण उलझन काटने,
कचोटने, नोंच खाने आती है।
क्या असामान्य हीं होना
मेरी परिभाषाओं को सार्थक
और परिपक्व बनाती है?
या मुझे असमय सागर में डुबोने का प्रयास?
क्रियाओं में संलग्न जीव,
हर जीव, अपनी परिभाषाओं हीं को तो
सार्थक और शब्दित करने में लगा है।
फिर मैं हीं असामान्य क्यों?
तर्क से इसे खंडित करने पर,
हर जीव असामान्य और
असाधारण सी हीं तो यात्रा करता।
कुपित कुंठित फिर यहीं यह अग्नि क्यों?
इसकी ज्वालाएं शरीर के हर अंग को,
झुलसा, तपा देती हैं।
शायद, सुना है सोना भी कुछ
इसी प्रकार तैयार होता है।
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