Friday, April 29

वो जो मुझसे दूर हो गयी

मुँडेरों से झाँकती हुई,

ओस की बूंदों सी,

मेरे आँगन में गिरती है |

सतरंगी परचम लहराती ,

बादलों की ओट से,

लुकाछिपी खेलती खिलखिलाती है|

अधनंगे बदन पर,

सिर्फ़ एक सफ़ेद रेशमी दुपट्टा ओढ़े,

मुझे ललचाती है|

जो हर सुबह,

अखबारी काला सफ़ेद पोंते,

मेरे दरवाज़े पर दस्तक देती है|

खोलते हीं गुम् हो जाना,

मिचमिचाती आँखों के साथ,

लुकाछिपी खेलती है|

वो खुशी आज सुबह,

मेरे बिस्तर पर लेटी मुझे मिली|

उठने के साथ चाय की प्याली देकर,

झिलमिल सी आँखों में मुस्कान भर कर,

नाश्ता बनाने किचन में चली गयी|

जिस खुशी ने मुझसे दूरी कर ली थी,

दिन भर मुझसे बतियानें बैठी|

बोली अब यहीं रहूँगी|

जब तक वो काले घनेरे बादल,

फिर तुम्हारे अंदर से मुझे धकेल नहीं देते|

Saturday, April 9

The skeptic in me writes away

The skeptic in me writes this,

Always the skeptic in me writes this,

I hear my heart pounding,

Trying to ignore the creaking in my greys,

The skeptic in me types away.


It makes so many attempts,

Emoting on paper, the rapid swims,

The perspiring tinges of rainbow,

Hoping for the glint

The skeptic in me withers in words hopelessly.


Gleaming, the golden orb,

Sinking deep in the calluses,

Dark and dingy in the corners,

Shining in black grease,

The other part of me keeps surfacing,

While the skeptic in me wordsmiths.


Honing all these thoughts, gargantuan in nature,

The ticking continues, ahoy ahoy up the sails,

Turning those wheels that direct,

Shining the curb I always bite,

The skeptic in me now strikes